Mind : Friend or Foe


मन : दुश्मन या दोस्त

मन, उस कमीने दोस्त की तरह है जिसे आप अपना जिगरी यार समझते हैं, सब कुछ उससे साझा करते हैं, उसे खिलाते हैं-पिलाते हैं, 24 घंटे अपने साथ रखते हैं, उसकी हर बात सिर के बल मानते हैं क्योंकि आप समझते हैं कि वह भी आपकी हर बात मानेगा। जैसे आप उससे प्यार करते हैं वह भी आप से प्यार करता है।



किन्तु आप का भ्रम, यह सुन्दर सपना टूट जाता है जब आप उसे छिप कर आपकी गर्ल फ्रेंन्ड के साथ इश्क लडाते देखते हैं। इतना बड़ा धोखा, आप के होश उड गये।
जिसे मैने अपना जिगरी यार समझा वह तो मेरे जान का दुश्मन निकला।
लगभग कुछ ऐसा ही है हमारा मन।

जी हाँ, हमारा मन, हमारा सबसे विश्वसनीय बन कर हमारे साथ ही छल, विश्वासघात करता है।

विश्वास नहीं होता ना।

अच्छा बताइये आप अपने सपने, अपने सीक्रेट किसके साथ साझा करते हैं। अपने मन से । उससे ही कहते हैं-यह मुझे जीवन में अवश्य करना है, यह अवश्य ही पाना है, और ऐसा बंगला तो अवश्य ही बनाना है।
पर इन सपनों में से कितने पूरे होते हैं।
1 या 2 प्रतिशत। क्यों।
क्योंकि हम कहीं चूक जाते हैं, कहीं खो जाते हैं।
कौन है जो हमें बहकाता है, हमें कर्म करने से विरत करता है, व्यर्थ के सपनों में भटकाता है, हमें अपना लक्ष्य हासिल करने में बाधा डालता है...और हमारी ऊँची उडानों के हौसले को पस्त करता है...

हमारा मन..

जी हाँ, यह हमारा मन ही होता है जो हमें कर्म करने से विरत कर कभी सपनों की दुनिया में घुमाता रहता है, कभी बडे-बडे ख्वाब दिखाता है और कभी हममें निरर्थक अहंकार, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष आदि भरकर हमें मानसिक तनाव, विक्षेपन, आदि की अंधकारयुक्त दुनिया में ठुकराता रहता है।



सावधान रहें इस मन से, जो आपका दुशमन बनकर आपकी पीठ में छुरा भोंकता है।
सावधान, सदा सावधान रहें..
इसे रीड करते रहें...



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